भाषा का विरोध और
वह भी अपने देश की भाषा का विरोध,
पारंपरिक, सांस्कृतिक एवं प्राचीन भाषा
का विरोध! एक ऐसी भाषा का विरोध जो हर तरह से
समृद्ध है और अपने ही देश में अपने उचित मान-सम्मान के लिए संघर्षरत है। जिस भाषा
को आधिकारिक दर्जा दिलवाने के लिए लोगों को एकमत होना चाहिए, उसी भाषा का विरोध शर्म की बात नहीं तो और क्या हो सकती है। जी हाँ,आज कल हिंदी के तथाकथित विद्वान भोजपुरी विरोध में लगे हुए हैं और वह भी बिना
उचित, उपयुक्त कारण के। ये विरोध तार्किकता, सत्यता पर निर्भर न होकर, उनके मन पर निर्भर है। मन बना लिया कि विरोध
करना है तो करना है, भले विरोध के सुर नाकारात्मक ही क्यों न हों, सत्य से परे ही क्यों न हों,
औचित्यविहिन ही क्यों न
हों, पर भाई मर्जी की बात, मन की बात, विरोध करना है तो करना है। कोई भारत के प्रधाव सेवक को खत लिखकर विरोध जता रहा
है तो कोई अखबार आदि के जरिए अपनी अतार्किक बातों द्वारा। इतना ही नहीं, आजकल तो फेसबुक आदि पर भी कुछ लोग भोजपुरी विरोध का राग अलाप रहे हैं और एक
प्रोफेसर साहब तो फेसबुक पर लोगों को गुमराह करने में लगे हुए हैं और अपनी विद्वता
को अपने प्रोफेसरी के घमंड में शर्मसार करने पर तुले हुए हैं।
कुलदीप श्रीवास्तव |
इस विषय पर एक
बहस आयोजित होनी चाहिए, जिसमें हिंदी आदि के उन सभी दिग्भ्रमित
साहित्यकारों, कथित विद्वानों आदिको बुलाया जाए, जो भोजपुरी का विरोध करते हुए लोगों को गुमराह करने में लगे हुए हैं, ताकि सबको स्पष्ट हो सके कि लोकभाषाओं की संस्कृति ही हिंदी की उदात्त
संस्कृति है। लोकभाषाओं को संरक्षित नहीं किया जाएगा, तो भाषा के साथ ही लोकसंस्कृति लुप्त हो जाएगी और अनेकता में एकता की संस्कृति
वाली हिंदी कमजोर ही नहीं अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए असहाय हो जाएगी। यह कहना
कितना हास्यास्पद है कि एक ही देश की एक भाषा मजबूत होगी तो दूसरी भाषा कमजोर हो
जाएगी। भोजपुरी के आधिकारिक होने से हिंदी के नुकसान का राग अलापना पूरी तरह से
बेबुनियाद है। लोग कैसे भूल जाते हैं कि भोजपुरी तो निरंतर हिंदी को समृद्ध करती
रही है। भोजपुरी देश के बाहर मॉरीशस, हॉलैंड सहित विश्व में
कहीं भी गई तो अपनी गठरी-मोटरी में हिंदी को भी साथ लेती गई। हिंदी भाषा के पितामह
भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा उनके बाद प्रेमचंद और हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं अन्य कई
समकालीन साहित्यकार भोजपुरी क्षेत्र से आए हैं, जिनके लिए भोजपुरी ने
प्रेरणा स्त्रोत के रूप में काम किया है। चाहें फणिश्वर नाथ रेणु का ‘मैला आँचल’, ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’, पहलवान का ढोलक आदि हो या राही मासूम रज़ा का ‘टोपी शुक्ला’, ‘आधा गाँव’, नीम का पेड़ आदि ये सभी बोली-भाषा की महत्ता को
संपादित करते हुए हिंदी को ही तो समृद्ध किए हैं। महोदय, अगर आज तक संविधान की सूची में सम्मिलित भाषाओं से हिंदी का कुछ नहीं हुआ तो
भोजपुरी से क्यों डर है? अगर डर ही है तो हिंदी को समृद्ध करने में लगें, भोजपुरी को रोकने में नहीं। एक बात और, आपके जैसे सत्ता-सुख की
लालसा में लगे हुए चाहे लाखों लोग भोजपुरी को लंगड़ी मारें, उसकी अजस्र धारा को कोई रोक नहीं पाएगा।
1000 हज़ार साल
पुरानी भाषा भोजपुरी का साहित्य अथाह समुंदर है। सैद्धांतिक तौर पर कहा जाता है कि
जो भाषा रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं करा पाती, उस भाषा का अस्तित्व
धीरे-धीरे खत्म होता जाता है। लेकिन यह सिद्धांत भोजपुरी के साथ ठीक-ठीक सामंजस्य
नहीं बना पा रहा। सीधे तौर पर देखें तो अभी तक भोजपुरी को संवैधानिक दर्जा भी नहीं
मिला है पर इसके बावजूद यह भाषा अपनी उत्पत्ति क्षेत्र की सीमा लांघ कर दुनिया के
लगभग 20 देशों में पंख पसार चुकी है। भाषा के विकास की भावना के साथ कुछ पेशेवर
पहल भी देश में हुए हैं जो पर्याप्त न होने के बावजूद भी सकून देते हैं और संविधान
की आठवीं अनुसूची में शामिल होने के दावे को पुख्ता करते हैं। दूसरी ओर देखें तो, नेपाल से लेकर मॉरीशस और सूरीनाम में यह कुछ हद तक रोजगार की भाषा बनी है।
एक हजार साल
पुरानी भोजपुरी भाषा न केवल एक भाषा है बल्कि बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर
प्रदेश के भोजपुरी क्षेत्र तथा कितने विदेश में बसे भोजपुरियों का संस्कार और जीवन
है। भोजपुरी में वह क्षमता है जो अन्य भाषाओं में कम देखने को मिलता है। यह हर
परिस्थिति में अपनी स्थिति मजबूत कर लेती है और उस मुकाम पर पहुँच जाती है जहाँ
इसे होना चाहिए था। अपनी ऐतिहासिकता के लिए विख्यात भोजपुरी एक तरफ बलिया से
बेतिया तक फैली है, तो इसका उत्तरी-दक्षिणी फैलाव लौरिया नंदनगढ़ से
आजमगढ़, देवरिया तक है। दूसरी ओर जहां इसकी कीर्ति पताका राम प्रसाद
बिस्मिल, मंगल पांडेय,
असफाकउल्लाह खां जैसे
क्रांतिवीरों ने लहराया है तो, वहीं बाबू कुंवर सिंह ने इसी जमीं से जीत का
जज्बा भरा है। आजादी के बाद भोजपुरी क्षेत्र से बनने वाले प्रथम राष्ट्रपति की बात
हो या कर्मठ प्रधानमंत्री का, डॉ. राजेंद्र प्रसाद से लेकर लाल बहादुर
शास्त्री तक सर्वश्रेष्ठ विकल्प पुरबिया माटी से ही निकले हैं। सचिदानंद सिन्हा ने
अपना कौशल दिखलाया तो वहीं दूसरी ओर दुश्मनों के दांत खट्टे करने और सरहदों की
रक्षा ही नहीं वरन विस्तार करने में बाबू जगजीवन राम का कोई सानी नहीं।
हमारे सांसद अपने
गौरवशाली इतिहास से प्रेरणा ले सकते हैं, क्योंकि हमारा भोजपुरिया
प्रदेश विशेष रूप से सदा सत्ता का केंद्र रहा है और अपने सम्मान की रक्षा में
हमेशा आगे रहा है। मौर्यों से पहले जरासंध और शिशुनाग जैसे शासकों को देख चुका यह
क्षेत्र महान सिकंदर के आक्रमण को चंद्रगुप्त मौर्य के शौर्य से चुनौती देता है।
कभी शिक्षा का महानतम केंद्र, तेजस्विता से ओत-प्रोत यह क्षेत्र कितने
मनीषियों, शिक्षाविदों, राजनेताओं की महान
कर्मस्थली बन विश्व का नेतृत्व किया, विश्व को मानवता का पाठ
पढ़ाया और आज एकाएक यह अनपढ़ और अपने कर्तव्य के प्रति उदासिन कैसे हो गया? नेता, सांसद अपनी मातृभाषा के प्रति सम्मान की बात तो
करते हैं पर संसद में असहाय क्यों दिखते हैं, यह संदेहास्पद बात है, इनकी कोई मजबूरी है या ये जानबूझ कर अपनी मातृभाषा को उपेक्षित रखना चाह रहे
हैं और ऐसे में ही इन कथित हिंदी प्रेमियों को भी विरोध का मौका मिल जा रहा है। एक
से बढ़कर एक पावरफुल भोजपुरिया सांसद, मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री एवं देश के सर्वोच्च पद महामहिम
राष्ट्रपति हुए। पर, आजादी के 69 साल बाद भी
भोजपुरी भाषा अपने सम्मान की लड़ाई लड़ रही है। वह भी भारत में सबसे ज्यादा भोजपुरी
बोलने वाले सपूतों को पैदा करने के बाद भी, भोजपुरी माटी के लाल देश
मे ही नहीं विदेशों में भी अपनी हुनर, मेहनत और ताकत के बलबूते
सर्वोच्च पदों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
आज मॉरीशस, फिजी, गुयाना, सुरीनाम, नीदरलैंड, त्रिनिदाद, टोबैगो जैसे देशों में
भोजपुरी जनसमूह अपना परचम बड़े गर्व से फहरा रहा है। मॉरीशस के खेतों में गन्ने की
खेती के लिए धोखा से ले जाए गए मजदूरों ने बसुधैव कुटुंबकम की भावना से ओत प्रोत
हो कर उस मिट्टी को ही अपने खून-पसीने से सिंचना शुरू किया। बंजर जमीनें लहलहा
उठीं और आज मॉरीशस विश्व का जीता-जागता स्वर्ग बन गया। यह भोजपुरी माटी की ताकत ही
है कि देश के बाहर एक और भारत का निर्माण हो गया। आखिर हमारे नेता अपने इतिहास से
सीख क्यों नहीं लेते और वर्षो से लंबित भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने
की जोरदार पहल क्यों नहीं करते?
आखिर कब तक ये सांसद, नेता, मंत्री केवल बातें बनाते रहेंगे और कोरा
आश्वासन देते रहेंगे। यूपीए 1 एवं 2 के मंत्री और नेता भी केवल आश्वासन देने के
सिवा कुछ नहीं किए। खांटी भोजपुरिया एवं सासाराम की सांसद, मीरा कुमारलोकसभा अध्यक्षा रहीं और कुशीनगर के सांसद आरपीएन सिंह गृहराज्य
मंत्री रहे, फिर भी बिल तक पेश नहीं करा पाए लोकसभा में। और
आज की सरकार भी अभी आश्वासन के सिवा कुछ कर नहीं पाई है।
भोजपुरी माटी में
पैदा होकर अनेक भोजपुरिया सपूत अपने-अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण एवं पावरफुल बने।
उन्हीं में से कवि केदार नाथ सिंह जी, आलोचक नामवर सिंह, मनेजर पाण्डेय जी और साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ त्रिपाठी जी। इन
चारों का मेरा नमन। इन लोगों ने भी अपने साहित्य, कविताओं और आलोचनाओं से
देश-विदेश में भोजपुरी माटी का मान बढ़ाया है पर, इन लोगों ने कभी भी अपनी
मां की भाषा भोजपुरी की बात करना तो दूर, कर्ज चुकाने की भी कोशिश
नहीं की। हम ए महान विभूति लोगन से पुछत बानी की, ‘भोजपुरी के संवैधानिक
दरजा मिले, एकरा खातिर कवनो राउर फरज नइखे का? विकिपीडिया पर भोजपुरी माटी के महान सपूत नामवर सिंह के हम प्रोफाइल पढ़त रहनी, पढ़ि के हमरा सरमिंदा महसूस भइल कि का कवनो भोजपुरिया खातिर एतना खराब समय आ
गइल बा की ओकरा आपन पहिचान बतावत में सरम आवत बा? रउआँ सभे भी पढ़ लीं की का
लिखल बा, ‘वे हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू, बाँग्ला, संस्कृत भाषा भी जानते हैं।’ नामवर सिंह के जनम 1 मई 1927 के बनारस (अब के चंदौली जिला में) के एगो गाँव
जीयनपुर में भइल रहे। तऽ का माननीय नामवरजी के आपन माई भाखा भोजपुरी ना आवेला? का पैदा होते उहाँ का उर्दू भा बंगला बोले लगनीं? यह बहुत ही शर्म की बात है कि ऐसा व्यक्ति जिस पर हम भोजपुरियों को नाज है वह
अपनी माटी की खूशबू और भाषा से ही परहेज कर गया, जिसमें वह पला-बढ़ा, जिसको बोलकर वह आज इस मुकाम पर पहुँचा। मनेजर पाण्डेय जी एवं कविवर केदारनाथ
सिंह जी भोजपुरी में कुछ ना लिख सकेनीतऽ भोजपुरी मान्यता के मांग भी ना कर सकेनी
का? ओने साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ त्रिपाठी 24 भासा
के लोगन के सम्मान देत समय एक्को बेर उनका आपन माई के भासा भोजपुरी के यादो ना आइल? इ सभ देख के दिल के बड़ा ठेस पहुँचे ला, पर का इ चारों विभूतियन
के कुछु फर्क भी ना पड़े? अब ए से बड़हन सरम के बात का होई। 2013 में
पटना में मोदी सरकार के पावरफुल मंत्री रविशंकर प्रसाद भी कहले रहनी की मोदी सरकार
आवते भोजपुरी के संवैधानिक मान्यता मिल जाई। पर मान्यता तऽ दूर के बात बा, पिछले साल रविशंकर बाबु 22 भासा में किताबन के ‘डिजिटलाइजेशन’ के घोसना कइलन, पर भोजपुरी के तनको इयाद ना कइनें!
जहाँ तक भोजपुरी
विरोधियों की बात हैं तो इतना कहूंगा कि यह असक्षम लोगो का एक ग्रुप मात्र हैं, और तथाकथित हिंदी के सूबेदारों द्वारा भोजपुरी का विरोध करना यह साबित करता है
कि भोजपुरी दुनिया की सबसे मजबूत भाषा है जिसका सामना नहीं कर सकते ये लोग। इनको
अपने आप पर और अपने साहित्य पर तनिक भी विश्वास नहीं। यह अपनी कमजोरी छिपाने के
लिए भोजपुरी विरोध का सबसे आसान तरीका ढूंढ लिए हैं। कई बार तो भोजपुरी विरोध में
यह तर्क दिया जा रहा है कि यदि बहुत-सी भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किया
गया तो रिजर्व बैंक के लिए उन सभी भाषाओं को नोट पर छापना असंभव हो जाएगा, क्योंकि नोट पर इतनी जगह नहीं है। दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि संघ लोक
सेवा आयोग भी पर्याप्त मूलभूत सुविधा के अभाव में आठवीं अनुसूची में शामिल सभी
भाषाओं में परीक्षा लेने में समर्थ नहीं है। अब तो लोग यह कहने लगे हैं कि भोजपुरी
को संविधान में सम्मिलित करने से हिंदी को नुकसान होगा। वाह रे स्वार्थी मानव।
मुझे तो जहाँ तक पता है कि दिया जाने वाला कोई भी कारण तर्कसंगत नहीं है। अगर
आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं का नोट पर छापना अनिवार्य होता तो चौदह की जगह
बाइस भाषाएं छापी जातीं और जहाँ तक परीक्षा की बात है तो संघ लोक सेवा आयोग भी केवल
दस बड़ी भाषाओं को ही परीक्षा का माध्यम बनाने की व्यवस्था रखे और अन्य भाषाओं को
विकल्प के रूप में मान्यता दे दे। तो कृपया भोजपुरी का या किसी भी भारतीय भाषा का
विरोध न करके भाषा को, हिंदी को समृद्ध करने की बात करें। नकारात्मकता, स्वार्थ से ऊपर उठकर सब भारतीय भाषाओं के विकास की बात करें। क्या यह संभव
होगा कि आप एक ही परिवार के कुछ लोगों को उपेक्षित रखें? क्या यह उचित होगा और वह भी ऐसे व्यक्ति, भाषा को जो पूरी तरह से
सामर्थ्यवान, समृद्ध है? आखिर कब तक आप
सामर्थ्यवान को दबाने की कोशिश करते रहेंगे? आप परिवार के मुखिया को
तभी मजबूत कर सकते हैं जब परिवार के बाकी लोग भी मजबूत हों, सबका सम्मान हो। तो, कृपया आप पुनःविचार करते हुए, सत्य, तर्क, यथार्थ की कसौटी पर अपने
विचारों को कसते हुए, भाषा की, हिंदी के विकास की बात
करें, उसे समृद्ध करने में अपना योगदान दें न कि भोजपुरी का विरोध
करें। जय हिंद। जय हिंदी। जय भोजपुरी।
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