Sunday 11 October 2015

तुम डाल-डाल, हम पात-पात - बिहार चुनाव

चुनाव आते ही राजनीतिक पार्टियों को गिरगिट जैसे रंग बदलते आसानी से देखा जा सकता है। अब
देखिए न, बिहार में चुनावी बिसात तो बिछ ही चुकी है, इधरमहागठबंधन में दरार भी पड़ चुका है, नीतीश के भरोसेमंद जीतनराम मांझी अब एनडीए खेमे में जा मिले हैं। कुछ महीनों पहले जिस तरह से जीतनराम मांझी के इस्तीफे के साथ ही नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनते कई महीनों से जारी मांझी और नीतीश के बीच सियासी लड़ाई हुई थी, उस सियासी लड़ाई ने इस चुनावी लड़ाई को नीतीश के लिए थोड़ा मुश्किल तो कर ही दिया है। नीतीश कुमार ने जबसे दुबारा राज्य के मुख्यमंत्री की बागडोर संभाले हैं, बिहार की राजनीतीनेनीतीशको समझौते की राह पर ला खड़ा कर दिया है। बिहार की राजनीति उनके लिए इतनी मुश्किल जान पड़ रही है कि उन्हें न चाहते लालू यादव के साथ आना पड़ा है।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि विकट परिस्थितियों के बीच भी अपने राजनैतिक हमलावरों, विपक्षियों से जूझते हुए, बातों-बातों में ही कभी पटकनी देते तो कभी पटखनी खाते हुए नीतीश अपनी पार्टी को एकजुट रख पाने में सफल भी हुए हैं। लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार अब बहुत हद तक मजबूत नज़र आ रहे है। उपचुनाव में जीत और दिल्ली में भाजपा की करारी हार ने उनको और पार्टी को टॉनिक पिला दिया है, उनमें जोश भर दिया है लेकिन अब उनके सामने नई चुनौतियां होंगी। अब उन्हें अपने महादलित वोट बैंक को समझाना होगा कि मांझी को हटाना क्यों जरूरी था? यह भी बताना होगा कि किस कारण से उन्हें लालू प्रसाद यादव से समझौता करना पड़ा है। लालू एवं राजद का साथ उनके लिए थोड़ा नुकसानदायक जरूर हो सकता है, लेकिन राजनीति में समयानुसार विरोधियों से भी हाथ मिलाना पड़ता है, यह जगजाहिर है। इस बात को भी साकारात्मक रूप से नीतीश कुमार जनता के बीच ले जाना चाहेंगे, क्योंकि सत्ता तक पहुँचने के लिए नीतीश कुमार लगभग दो दशक तक लालू एवं उनके कार्यकाल को जंगलराज बताकर बिहार की सत्ता पर काबिज हुए थे और गाहे-बेगाहे लालू एंड पार्टी को निशाना बनाया करते थे। खैर नीतीश को पता है कि जनता सब भूल जाती है और वर्तमान में जीती है, शायद इस बात को ध्यान में रखकर वे थोड़े निश्चिंत होंगे और जनता की नाराजगी दूर करने का प्रयास करेंगे।

भाजपा और जदयू गठबंधन टूटने के बाद और भाजपा के सरकार से बाहर होने के बाद बिहार में कानून व्यवस्था की हालत जर्जर हो गई है और विकास की गाड़ी पटरी से पूरी तरह उतर चुकी है। उन्हें हरहालत में विकास को फिर से पटरी पर लाना होगा, जिसे वे अपना यूएसपी बताते हैं। उनके सामने यह भी दुविधा होगी कि मांझी द्वारा आनन-फानन में लिए गए फैसलों का क्या करें? दलितों के पक्ष में लिए गए उन निर्णयों को पलटने से उन्हें सियासी नुकसान हो सकता है। इसलिए नीतीश फूँक-फूँक कर कदम रख रहे हैं और जनता के लिए, बिहार के लिए नई-नई घोषणाएँ करने के साथ ही प्रधानमंत्री की घोषणा को घोषणा से दूर उसे बिहार के लिए मजाक करार दे रहे हैं। नीतीश और उनकी टीम बिहार को समझाने में लगी है कि मोदीजी ने जो घोषणा की वे अपने घर से नहीं दिए, वह बिहार का हक है और साथ ही उनके घोषणा करने का तरीका भी पूरी तरह से गलत था।

हाँ, यह भी सत्य है कि मांझी नीतीश के लिए मुश्किल इसलिए भी खड़ी कर सकते हैं क्योंकि इस्तीफे के बाद से उनका कद थोड़ा बढ़ गया और मुख्यमंत्री बनने से पहले लोगों के लिए अनजान व्यक्ति, मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते ही महादलितों के नेता के रूप में अपने को प्रोजेक्ट कर लिया और शायद इसलिए बीजेपी भी उन्हें अपने खेमे में रखकर बिहार की जंग जीतना चाहती है। बीजेपी जनता के बीच नीतीश सरकार की गलतियों को गिनाने में लगी है। यह सही है कि बिहार की हालत अच्छी नहीं है। पिछला चुनाव जीतने के बाद नीतीश कुमार ने कहा था की २०१५ तक हर गॉव में २४ घंटा बिजली नहीं पंहुच पाई तो वोट मांगने नहीं जाऊंगा! अब उनके वादों का क्या होगा? क्या जनता नीतीश के वादों को भूलकर उन्हें ओट करेगी या उन्हें धूल चटाएगी, यह देखने वाली बात होगी। साथ ही लालू से हाथ मिलाना भी बिहारी जनता को अखर सकता है और इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ सकता है पर साथ ही यह भी हो सकता है कि नीतीश की राजनीतिक मजबूरियों को समझते हुए जनता उनके साथ बनी रहे।

इधर मोदी की बिहार में दनादन रैलियाँ हो रही हैं। भीड़ भी खूब जुट रही है, तालियाँ भी खूब बज रही हैं, पर अभी तक यह भी असमंजस है कि यह तालियाँ मोदी के लिए बज रही हैं, एक प्रधानमंत्री के लिए बज रही हैं, उनकी घोषणाओं के लिए बज रही हैं या बिहार की जंग जीतने उतरी भाजपा के लिए, उनके उम्मीदवारों के लिए बज रही है? क्योंकि यह भी तो हो सकता है कि जनता मोदी को तो पसंद करती हो पर बिहार में वह बीजेपी के पक्ष में न जाए, जैसा कि दिल्ली आदि में देखा जा चुका है।
वैसे नीतीश की राह भले कठिन हो पर यह भी सत्य है कि उनका भी एक जनाधार है, जो उन्हें एक अच्छा अगुआ, एक अच्छा मुख्यमंत्री के रूप में देखता है। उसे लगता है कि बिहार को सही रास्ते पर, विकास के रास्ते पर नीतीश जरूर दौड़ा सकते हैं पर इसके लिए हमें उन्हें समय देना होगा। बिहार की यह लड़ाई सभी पार्टियों, गठबंधनों के लिए नाक की लड़ाई बनते नजर आ रही है और खींचातानी भी शुरू हो गई है। कहीं चुनावी भाषण तो कहीं गानों के माध्यम से अपने को अच्छा साबित करने की कोशिश। जनता भी चुनावी भाषणों, गानों आदि का खूब आनंद ले रही है और लगभग 80 प्रतिशत जनता ने ओट के लिए अपने माइंड को सेट भी कर लिया है। लगभग 20 प्रतिशत जनता उहापोह में है और अब इन्हें ही पार्टियाँ अपने लटके-झटके और भाषाणों से लुभा सकती हैं। तो चलिए देखते हैं कि तुम डाल-डाल, हम पात-पात की लड़ाई में बाजी कौन मारता है?



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