Wednesday, 25 March 2015

जिन्हें नाज है भोजपुरी पर, वो कहाँ हैं....



सैद्धांतिक तौर पर कहा जाता है कि जो भाषा रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं करा पाती, उस भाषा का अस्तित्व धीरे-धीरे खत्म होता जाता है। लेकिन यह सिद्धांत भोजपुरी के साथ ठीक-ठीक सामंजस्य नहीं बना पा रहा। सीधे तौर पर देखें तो अभी तक भोजपुरी को संवैधानिक दर्जा भी नहीं मिला है पर इसके बावजूद यह भाषा अपनी उत्पत्ति क्षेत्र की सीमा लांघ कर दुनिया के लगभग 20 देशों में पंख पसार चुकी है। भाषा के विकास की भावना के साथ कुछ पेशेवर पहल भी देश में हुए हैं जो पर्याप्त न होने के बावजूद भी सकून देते हैं और संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने के दावे को पुख्ता करते हैं। दूसरी ओर देखें तो, नेपाल से लेकर मॉरीशस और सूरीनाम में यह कुछ हद तक रोजगार की भाषा बनी है।


      एक हजार साल पुरानी भोजपुरी भाषा न केवल एक भाषा है बल्कि बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी क्षेत्र का संस्कार और जीवन है। भोजपुरी में वह क्षमता है जो अन्य भाषाओं में कम देखने को मिलता है। यह हर परिस्थिति में अपनी स्थिति मजबूत कर लेती है और उस मुकाम पर पहुँच जाती है जहाँ इसे होना चाहिए था। अपनी ऐतिहासिकता के लिए विख्यात भोजपुरी एक तरफ बलिया से बेतिया तक फैली है, तो इसका उत्तरी-दक्षिणी फैलाव लौरिया नंदनगढ़ से आजमगढ़, देवरिया तक है। दूसरी ओर जहां इसकी कीर्ति पताका राम प्रसाद बिस्मिल, मंगल पांडेय, असफाकउल्लाह खां जैसे क्रांतिवीरों ने लहराया है तो, वहीं बाबू कुंवर सिंह ने इसी जमीं में जीत का जज्बा भरा है। आजादी के बाद भोजपुरी क्षेत्र से बनने वाले प्रथम राष्ट्रपति की बात हो या कर्मठ प्रधानमंत्री का, डॉ. राजेंद्र प्रसाद से लेकर लाल बहादुर शास्त्री तक सर्वश्रेष्ठ विकल्प पुरबिया माटी से ही निकले हैं। सचिदानंद सिन्हा ने अपना कौशल दिखलाया तो वहीं दूसरी ओर दुश्मनों के दांत खट्टे करने और सरहदों की रक्षा ही नहीं वरन विस्तार करने में बाबू जगजीवन राम का कोई सानी नहीं।

      हमारे सांसद अपने गौरवशाली इतिहास से प्रेरणा ले सकते हैं, क्योंकि हमारा भोजपुरिया प्रदेश विशेष रूप से सदा सत्ता का केंद्र रहा है और अपने सम्मान की रक्षा में हमेशा आगे रहा है। मौर्यों से पहले जरासंध और शिशुनाग जैसे शासकों को देख चुका यह क्षेत्र महान सिकंदर के आक्रमण को चंद्रगुप्त मौर्य के शौर्य से चुनौती देता है। कभी शिक्षा का महानतम केंद्र, तेजस्विता से ओत-प्रोत यह क्षेत्र कितने मनीषियों, शिक्षाविदों, राजनेताओं की महान कर्मस्थली बन विश्व का नेतृत्व किया, विश्व को मानवता का पाठ पढ़ाया और आज एकाएक यह अनपढ़ और अपने कर्तव्य के प्रति उदासिन कैसे हो गया? नेता, सांसद अपनी मातृभाषा के प्रति सम्मान की बात तो करते हैं पर संसद में असहाय क्यों दिखते हैं, यह संदेहास्पद बात है, इनकी कोई मजबूरी है या ये जानबूझ कर अपनी मातृभाषा को उपेक्षित रखना चाह रहे हैं।



      एक से बढ़कर एक पावरफुल भोजपुरिया सांसद, मंत्री, लोकसभा अध्यक्षा, प्रधानमंत्री एवं देश के सर्वोच्च पद महामहिम राष्ट्रपति हुए। पर, आजादी के 68 साल बाद भी भोजपुरी भाषा अपने सम्मान की लड़ाई लड़ रही है। वह भी भारत में सबसे ज्यादा भोजपुरी बोलने वाले सपूतों को पैदा करने के बाद भी, भोजपुरी माटी के लाल देश मे ही नहीं विदेशों में भी अपनी हुनर, मेहनत और ताकत के बलबूते सर्वोच्च पदों की शोभा बढ़ा रहे हैं।

      आज मॉरीशस, फिजी, गुयाना, सुरीनाम, नीदरलैंड, त्रिनिदाद, टोबैगो जैसे देशों में भोजपुरी जनसमूह अपना परचम बड़े गर्व से फहरा रहा है। मॉरीशस के खेतों में गन्ने की खेती के लिए धोखा से ले जाए गए मजदूरों ने बसुधैव कुटुंबकम की भावना से ओत प्रोत हो कर उस मिट्टी को ही अपने खून-पसीने से सिंचना शुरू किया। बंजर जमीनें लहलहा उठीं और आज मॉरीशस विश्व का जीता-जागता स्वर्ग बन गया। यह भोजपुरी माटी की ताकत ही है कि देश के बाहर एक और भारत का निमार्ण हो गया। आखिर हमारे नेता अपने इतिहास से सीख क्यों नहीं लेते और वर्षो से लंबित भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की जोरदार पहल क्यों नहीं करते? आखिर कब तक ये सांसद, नेता, मंत्री केवल बातें बनाते रहेंगे और कोरा आश्वासन देते रहेंगे। यूपीए 1 एवं 2 के मंत्री और नेता भी केवल आश्वासन देने के सिवा कुछ नहीं किए। खांटी भोजपुरिया एवं सासाराम की सांसद, मीरा कुमारलोकसभा अध्यक्षा रहीं और कुशीनगर के सांसद आरपीएन सिंह गृहराज्य मंत्री रहे, फिर भी बिल तक पेश नहीं करा पाए लोकसभा में।

      भोजपुरी माटी में पैदा होकर अनेक भोजपुरिया सपूत अपने-अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण एवं पावरफुल बने। उन्हीं में से कवि केदार नाथ सिंह जी, आलोचक नामवर सिंह, मनेजर पाण्डेय जी और साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ त्रिपाठी जी। इन चारों का मेरा नमन। इन लोगों ने अपने साहित्य, कविताओं और आलोचनाओं से देश-विदेश में भोजपुरी माटी का मान बढ़ाया है। पर, इन लोगों ने कभी भी अपनी मां की भाषा भोजपुरी की बात करना तो दूर कर्ज चुकाने की भी कोशिश नहीं की।

      हम ए महान विभूति लोगन से पुछत बानी की, ‘भोजपुरी के संवैधानिक दरजा मिले, एकरा खातिर कवनो फरज नइखे? विकिपीडिया पर भोजपुरी माटी के महान सपूत नामवर सिंह के हम प्रोफाइल पढ़त रहनी, पढ़ि के हमरा सरमिंदा महसूस भइल कि का कवनो भोजपुरिया खातिर एतना खराब समय आ गइल बा की ओकरा आपन पहिचान बतावत में सरम आवत बा? रउआँ सभे भी पढ़ लीं की का लिखल बा, ‘वे हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू, बाँग्ला, संस्कृत भाषा भी जानते हैं।नामवर सिंह के जनम 1 मई 1927 के बनारस (अब के चंदौली जिला में) के एगो गाँव जीयनपुर में भइल रहे। तऽ का माननीय नामवरजी के आपन माई भाखा भोजपुरी ना आवेला? का पैदा होते उहाँ का उर्दू भा बंगला बोले लगनीं? यह बहुत ही शर्म की बात है कि ऐसा व्यक्ति जिस पर हम भोजपुरियों को नाज है वह अपनी माटी की खूशबू और भाषा से ही परहेज कर गया, जिसमें वह पला-बढ़ा, जिसको बोलकर वह आज इस मुकाम पर पहुँचा।

मनेजर पाण्डेय जी एवं कविवर केदारनाथ सिंह जी भोजपुरी में कुछ ना लिख सकेनीतऽ भोजपुरी मान्यता के मांग भी ना कर सकेनी का? ओने साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ त्रिपाठी 24 भासा के लोगन के सम्मान देत समय एक्को बेर उनका आपन माई के भासा भोजपुरी के यादो ना आइल? इ सभ देख के दिल के बड़ा ठेस पहुँचे ला, पर का इ चारों विभूतियन के कुछु फर्क भी ना पड़े? अब ए से बड़हन सरम के बात का होई। 2013 में पटना में मोदी सरकार के पावरफुल मंत्री रविशंकर प्रसाद भी कहले रहनी की मोदी सरकार आवते भोजपुरी के संवैधानिक मान्यता मिल जाई। पर मान्यता तऽ दूर के बात बा, अभी हाले में रविशंकर बाबु 22 भासा में किताबन के डिजिटलाइजेशनके घोसना कइलन, पर भोजपुरी के तनको इयाद ना कइनें!


      हमरा उम्मीद ही ना पूरा विश्वास बा कि अगर इ नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मनेजर पाण्डेय जी, विश्वनाथ त्रिपाठी और सभ भोजपुरिया सांसद एक बार, एक साथ जोरदार ढंग से भोजपुरी के अष्ठम अनुसूची में सामिल कइले के मांग उठाई लोग तऽ कवनो सरकार के रोकल मुश्किल हो जाई आ मान्यता संबंधी बिल संसद में पास करहीं के पड़ी। जय भोजपुरी!


Wednesday, 18 March 2015

जर्मनी का दो सदस्यीय दल आज भोजपुरी अध्ययन केन्द्र में



हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय, जर्मनी का दो सदस्यीय दल आज भोजपुरी अध्ययन केन्द्र में आया और भोजपुरी अध्ययन केन्द्र की गतिविधियों, पाठ्यक्रम और उसके व्यापक सरोकारो से परिचय प्राप्त किया। इस दल में हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय के साउथ एशिया केन्द्र के भारत विभाग के प्रतिनिधि श्री राडू काचूमारू तथा श्री सुबुर बख्त शामील थे। श्री काचू मारू ने भोजपुरी अध्ययन केन्द्र द्वारा विकसित नये ज्ञानानुशासन ‘जनपदीय अध्ययन’ की तारीफ की। उन्होंने कहा कि इस अध्ययन में अस्मिताओं के निर्माण की आन्तरिक गति को समझने और उनके आपसी ताल-मेल और सह अस्तित्व की दृष्टि विकसित करने की क्षमता है, जो कि आज के विश्व की जरूरत है। श्री काचूमारू ने केन्द्र के संस्कृति और अस्मिता अध्ययन की तारीफ करते हुए कहा कि इसमें अकूत सम्भावनाएं हैं। देशज ज्ञान, देशज बुद्धिमत्ता, देशज कौशल को आधुनिक जीवन की बेहतरी में उपयोग करने की केन्द्र की धारणा बेहद सराहनीय है। उन्होंने केन्द्र के समन्वयक प्रो0 सदानन्द शाही से कहा कि केन्द्र की अवधारणाओं और सम्भावनाओं को मूर्त रूप देने के लिए हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय केन्द्र के साथ सहयोग करेगा। उन्होंने केन्द्र के समन्वयक प्रो0 शाही से इच्छा जताई कि भोजपुरी संस्कृति का अध्ययन करने के लिए जर्मन शोध छात्र केन्द्र में आयेंगे। श्री काचूमारू ने प्रो0 शाही से जनपदीय अध्ययन की अवधारणा, के बारे में हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय में वक्तव्य देने के लिए आग्रह किया। श्री काचूमारू ने यह भी कहा कि भोजपुरी अध्ययन केन्द्र की यह यात्रा एक सुदीर्घ और फलदायी सहयोग की शुरूआत है। भोजपुरी अध्ययन केन्द्र के साथ शोध अध्ययन की ठोस परियोजनाएँ तथा साझेदारी की रूपरेखा तैयार करने के बाद हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय इस सिलसिले में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति से मुलाकात करेगा। केन्द्र के निदेशक, प्रो0 सदानन्द शाही ने इस दल का स्वागत करते हुए कहा कि छः सौ वर्ष पुराने और पश्चिम के उत्कृष्ट विश्वविद्यालयांें में से एक हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय के प्रतिनिधियों को अपने बीच पाकर मैं बेहद प्रसन्न हूँ। भोजपुरी और जनपदीय अध्ययन के नवस्थापित केन्द्र के लिए यह गौरव की बात है। उन्होंने कहा कि हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय के साथ सहभागिता से केन्द्र को बल मिलेगा। इस अवसर पर प्रो0 शुभा राव, राजनीति विज्ञान, विभाग, प्रो0 एम नटराजन, जर्मन विभाग, डाॅ0 अंचल श्रीवास्तव, भौतिकी विभाग, डाॅ0 अवधेश दीक्षित, डाॅ0 अजीत राय, गोपेश, धीरज गुप्ता, शिखा सिंह, यश्वी मिश्रा, उषा, दिलीप कुमार सिंह, विनोद आदि लोग उपस्थित थे। 

Friday, 13 March 2015

पारिवारिक फिल्म होगी 'फंस गइले प्रेम'


एनसीएस फिल्म्स की ओर से भोजपुरी फिल्म 'फंस गइले प्रेम'की शूटिंग अंतिम चरण में है। यह एक पारिवारिक फिल्म होगी जिसमें दहेज की समस्या के खिलाफ पुरजोर आवाज उठायी गयी है। ग्रामीण परिवेश से ओतप्रोत इस फिल्म में एक्शन और पारम्परिक गीत-संगीत भी लोगों को आकॢषत करेगा। फिल्म निर्देशक पप्पू भारती की यह दूसरी फिल्म है। फिल्म की अब तक की शूटिंग छपरा के समीप बेनियापुर गांव में हुई है।

इस फिल्म छपरा के राश बिहारी रवि गिरी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका में है. रवि को बचपन से ही फिल्मो की दीवानगी रही हैं, और उस दीवानगी को बहुत दमदार अभिनय के साथ परदे दिखा रहे हैं. रवि कहते हैं कि 'भोजपुरी फ़िल्म और एलबम में गंदे गाने हमें परेशान कर देते हैं । मैं इस लाइन में आने से पहले एक ट्रांस्पोट कंपनी रीजनल मेनेजर की हैसियत से काम किया हूँ  । मुझे कविता और गीत लिखने का बचपन से शौक हैं । मैं भोजपुरी फ़िल्म बी डी ओ साहेब में एस ए डंका बाबा का एक्टिंग कर चूका हूँ और मेरे किरदार को दर्शको द्वारा काफी सराहा गया हैं.  मेरी आने वाली फ़िल्म 'फंस गइले प्रेम में' बहुत अच्छा किरदार निभा रहा हु । इस फ़िल्म की गीत मैंने लिखा हैं ।'


 फिल्म में मुख्य भूमिकाएं कुणाल सिंह, प्रतिभा सिंह, हेमंत, बाबी, रासबिहारी रवि, प्रेम सिंह, घनश्याम मिश्रा, केएम सिंह, सुल्ताना, बाबी अनुराधा, कुमार संजीत, अमित वर्मा, जीतू सिंह, अकबर अली, मुकुल यादव, कोमल मिश्रा, रूपा सिंह, रमेश कुमार, गंगा ठाकुर एवं विजय राय ने अदा की हैं। फिल्म के गीत रासबिहारी ने लिखे हैं नागेन्द्र नृपांशु ने संगीतबद्ध किया है। गायक आलोक कुमार, प्रतिभा सिंह, रेणु भारती गिरि, सुरजीत, आदिती मुखर्जी एवं मोहना हैं। फिल्म निर्देशक पप्पू भारती का कहना है कि इसमें अश्लीलता नहीं है तथा यह पूरे परिवार को ध्यान में रखकर बनायी गयी है।  रवि गिरी सहित पूरी टीम को अग्रिम बधाई। … 

Tuesday, 10 March 2015

पति, पत्नि और वो दो



नाम-फेम के साथ-साथ अपने शख्तसियत को भी उपर उठाते हुए आगे बढ़ना पड़ता है, अपने स्टाइल में, रहन सहन में और व्यवहार में भी। पर भोजपुरी फिल्मी स्टारों में इन सभी बातों में बहुत अभाव देखा जाता रहा है। क्योंकि वो अपने गायकी से रातों-रात लोकप्रियता के हवाई जहाज पर एक बार चढ़ जाते हैं तो नीचे देखने की कोशिश ही नहीं करते। उनको लगता है कि एक बार फ्लाई कर दिये तो लैंड करने की क्या जरूरत? मगर जहाज को जमीन पर उतारना ही पड़ता है। जहां तक पवन सिंह की बात है तो मां सरस्वती उनके गले में वास करती हैं, आज की तारीख में पवन से सुरीला कोई गायक भोजपुरी गायकी की दुनिया में नहीं है। कम पढ़े-लिखे होने के साथ ही गलत संगत ने उनको कई गलत आदतों का आदि बना दिया है।

शराब की लत के साथ कई हिरोइनों के साथ उनका नाम जुड़ता रहा है, रानी चटर्जी के साथ तो कई सालों तक चला और आखिरकार बहुत हंगामें के साथ ब्रेकअप हुआ, उसके बाद मनोलिसा के साथ बहुत दिनों तक संबंध, चर्चाओं में रहा। फिर रीना रानी के साथ शादी की चर्चा चली और कई महीनों तक पवन और रीना रानी को साथ देखा गया, फिर वहीं हुआ जो पहले होता आ रहा था, ब्रेकअप।


जब हमें यह खबर मिली कि पवन सिंह की घरवारी उनके बडे़ भाई (रानु सिंह) की आधी घरवाली बनेगी तो बहुत खुशी हुई और पहली भोजपुरिया फिल्मी स्टार पवन सिंह की शादी 1 दिसबंर 2014 को बड़े धूमधाम से नीलम सिंह के साथ हुई। शादी में भोजपुरी फिल्म जगत की कई हस्तियों के अलावा राजनीतिक जगत के कई महत्वपूर्ण लोग शामिल हुए थे। 21 वर्षीय नीलम बीए पार्ट वन की छात्रा थी और छह दिन पहले ही मुंबई गई थी। नीलम उर्फ नीलू सिंह बीए- पार्ट वन की परीक्षा देने के लिए मुंबई से आरा गई थीं। परीक्षा देने के बाद अभी छह दिन पहले 3 मार्च 2015 को मुंबई गई थीं। पवन सिंह की साली कम भाभी बोली, ‘पति के पास पत्नी के लिए वक्त नहीं था’। पवन सिंह की पत्नी नीलम की मौत के मामले में मुंबई पुलिस ने जांच तेज कर दी है। सूत्रों के मुताबिक नीलम सिंह का शव सबसे पहले देखने वाली उसकी बहन (पूनम) ने पुलिस को बताया है कि पवन सिंह काम के सिलसिले में हमेशा व्यस्त रहते थे और उसकी बहन को वक्त नहीं दे पाते थे, जिसके चलते नीलम तनाव में रहती थी। 

मेरा सोचना है कि ये शादी बेमेल थी, 31 साल के पवन और 21 साल की कॉलेज में पढ़ने वाली नीलम सिंह फिल्मी दुनिया की तड़क-भड़क से दूर-दूर तक कोई नाता ना होने के कारण, फिल्मी रहन-सहन से अनजान नीलम पति को अपने पास और साथ चाहती थी जो पवन सिंह के पास नहीं था। शुटिंग, रिकाडिंग, डबिंग, दोस्तों के साथ दारू-बाजी और बाहर वाली का साथ - एक नहीं दो-दो। इन सब के बीच पवन के लिए अपनी पत्नि के लिए वक्त था ही कहां। और पवन चाहकर भी अपनी पत्नि के लिए वक्त नहीं निकाल पाते थे, क्योंकि उनके दारूबाज दोस्त और बाहर वाली छोड़ते ही नहीं थे। गांव की लड़की नीलम सिंह से अपनी पति की दूरी सही नहीं गई और दुनिया को अलविदा कह गई। 

चर्चाओं में नवोदित भोजपुरी फिल्मों की हिरोइन काव्या सिंह के साथ पवन सिंह से रिश्ता भी एक नीलम के सुसाइड का कारण माना जा रहा है तो दूसरा नाम भी मुंबई के भोजपुरी फिल्मी जगत में खुब उछल रहा है, प्रियंका पंडित का। अब सच्चाई क्या हैं ये तो पुलिस की जाँच के बाद ही पूरी तरह सामने आ पाएगा। बशर्ते कि पुलिस बिना कोई दबाव में जांच करे। एक बात और पुलिस अबतक केवल आत्महत्या के एंगिल से ही जाँच कर रही है… पुलिस को हत्या के एंगिल से भी जाँच करनी चाहिए। क्योंकि कई लोगों को पवन की शादी से दिक्कत हो गई थी…कइयों की कमाई रुक गई थी तो कइयों का करियर दांव पर। .... मेरा पुलिस से केवल यही अनुरोध हैं कि सच सामने आना चाहिए।… और दोषी को हर हाल में सजा मिलनी चाहिए। ………

Monday, 2 March 2015

बिहार के मांझी बनेंगें नीतीश ?



जीतन राम मांझी के इस्तीफे के साथ ही तथा नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनते ही कई महीनों से जारी मांझी और नीतीश के बीच सियासी लड़ाई थमती दिख रही है। अब नीतीश कुमार एक बार फिर राज्य के मुख्यमंत्री की बागडोर संभाल चुके हैं। यह गौरतलब है कि उन्होंने अब तक किसी भी तरह अपनी पार्टी को एकजुट रख पाने में सफल भी हो पाए हैं। लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार अब बहुत हद तक मजबूत नज़र आ रहे है। उपचुनाव में जीत और दिल्ली में भाजपा की करारी हार ने उनको और पार्टी को टॉनिक पिला दिया है, उनमें जोश भर दिया है लेकिन अब उनके सामने नई चुनौतियां होंगी। अब उन्हें अपने महादलित वोट बैंक को समझाना होगा कि मांझी को हटाना क्यों जरूरी था? यह भी बताना होगा कि किस कारण से उन्हें लालू प्रसाद यादव से समझौता करना पड़ा है। लालू एवं राजद का साथ उनके लिए थोड़ा नुकसान जरूर पहुंच जा सकता है, लेकिन राजनीति में समयानुसार  विरोधियों से भी हाथ मिलाना पड़ता है, यह जगजाहिर है। इस बात को भी साकारात्मक रूप से नीतीश कुमार जनता के बीच ले जाना चाहेंगे, क्योंकि सत्ता तक पहुँचने के लिए नीतीश कुमार लगभग दो दशक तक लालू एवं उनके कार्यकाल को जंगलराज बताकर बिहार की सत्ता पर काबिज हुए थे और गाहे-बेगाहे लालू एंड पार्टी को निशाना बनाया करते थे। खैर नीतीश को पता है कि जनता सब भूल जाती है और वर्तामान में जीती है, शायद इस बात को ध्यान में रखकर वे थोड़े निश्चिंत होंगे और जनता की नाराजगी दूर करने का प्रयास करेंगे।

भाजपा और जदयू गठबंधन टूटने के बाद और भाजपा के सरकार से बहार होने के बाद बिहार में कानून व्यवस्था की हालत जर्जर हो गई है और विकास की गाड़ी पटरी से पूरी तरह उतर चुकी है। उन्हें हरहालत में विकास को फिर से पटरी पर लाना होगा, जिसे वे अपना यूएसपी बताते हैं। उनके सामने यह भी दुविधा होगी कि मांझी द्वारा आनन-फानन में लिए गए फैसलों का क्या करें? दलितों के पक्ष में लिए गए उन निर्णयों को पलटने से उन्हें सियासी नुकसान हो सकता है। सवाल है कि पिछले पंद्रह दिनों तक चले सत्ता के खेल में नीतीश जीते तो हारा कौन? मांझी, या बीजेपी, या दोनों? इसका उत्तर आसान नहीं है। सचाई यह है कि इन दोनों को पता था कि नंबर गेम में वे नीतीश को नहीं हरा पाएंगे। फिर भी उन्होंने यह दांव चला तो उसकी कुछ और वजहें भी हैं। मांझी ने इस प्रकरण में अपना कद बढ़ाने की कोशिश की है। कल तक उन्हें कोई नहीं जानता था पर आज वे महादलितों के नेता के रूप में अपने को प्रोजेक्ट कर रहे हैं। विधानसभा चुनाव में वह एक अलग ताकत के रूप में दावेदारी कर सकते हैं क्योंकि अब तो उन्होंने अपनी नई पार्टी की घोषणा भी कर दी है।

बीजेपी की रणनीति महादलित वोट बैंक में तोड़फोड़ करने की थी। बिहार विधानसभा का मौजूदा कार्यकाल 29 नवंबर को समाप्त हो रहा है। यानी अक्टूबर के अंत या नवंबर के शुरुआत में बिहार में चुनाव होंगे, जिसमें पहली बार बीजेपी पूरे प्रदेश में अपने बूते चुनाव लड़ेगी। उसने रामविलास पासवान के जरिए दलितों को अपने साथ रखने की कोशिश की है। अगर महादलित भी उसकी तरफ आ जाते हैं तो नीतीश-लालू को कड़ी टक्कर मिलेगी। हालांकि, नीतीश के कमजोर होने में बीजेपी ही अपना फायदा देख रही हो, ऐसा नहीं है। लालू यादव को भी अहसास होगा कि मजबूत होकर नीतीश कहीं चुनाव जीतने के बाद उनकी पार्टी को हाशिये पर न डाल दें। इसलिए किसी न किसी रूप में आरजेडी भी इस तमाशे का हिस्सा थी। कुल मिलाकर बिहार की राजनीतिक बिसात पर हर कोई अपने-अपने मोहरे चल रहा है। चिंता जीत-हार की नहीं, इस बात की है कि बिहार का इससे क्या बनता-बिगड़ता है।

बिहार चुनाव में अब मात्र ९ महीने रह गए हैं, एक तरफ भाजपा और दूसरी तरफ सारी पार्टिया मिलकर बीजेपी को किसी भी तरह सत्ता में नहीं आने देना चाहती हैं। पिछला चुनाव जीतने के बाद नीतीश कुमार कहा था की २०१५ तक हर गॉव में २४ घंटा बिजली नहीं पंहुच पाई तो वोट मांगने नहीं जाऊंगा! अब उनके वादों का क्या होगा और बिहार की जनता को नीतीश कुमार क्या जवाब देते हैं, यह देखना होगा ! कुल मिलकर देखा जाए तो नीतीश कुमार घिरे तो नज़र आए हैं, पर हारे नहीं!

चुनावी पैंतरों से अलग तनि आपन, भोजपुरी, भोजपुरिया के बात भी क लेहल जाव। पहिले भारत रत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी के नमन। धनि बा ऊ भारत नगरी जहाँ बाबू राजेंदरजी जइसन महापुरुषन के प्रादुर्भाव भइल अउर जेकर कीर्ति आजुओ पूरा संसार के रोशन क रहल बा। अइसन महापुरुषन के काम हम भारतीयन के गौरवान्वित करेला अउर हमनीजान शान से, सीना तानि के कहेनी जा कि हमनीजान भारतीय हईं जा, भोजपुरिया हईं जां।

अउर एतने ना होरी भी, फगुआ भी चढ़ि गइल बा। एकर खुमार हम भोजपुरियन पर पूरा तरे लउकता। त होरी मनाईं पर केहू के दिल दुखा के ना, सबके खुश क के। होरी के हारदिक सुभकामना।

जय भोजपुरी, जय भोजपुरिया माटी....जोगीरा....... सर..ररररर...ररररररर।