सैद्धांतिक
तौर पर कहा जाता है कि जो भाषा रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं करा पाती, उस भाषा का
अस्तित्व धीरे-धीरे खत्म होता जाता है। लेकिन यह सिद्धांत भोजपुरी के साथ ठीक-ठीक
सामंजस्य नहीं बना पा रहा। सीधे तौर पर देखें तो अभी तक भोजपुरी को संवैधानिक
दर्जा भी नहीं मिला है पर इसके बावजूद यह भाषा अपनी उत्पत्ति क्षेत्र की सीमा लांघ
कर दुनिया के लगभग 20 देशों में पंख पसार चुकी है। भाषा के विकास की भावना के साथ
कुछ पेशेवर पहल भी देश में हुए हैं जो पर्याप्त न होने के बावजूद भी सकून देते हैं
और संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने के दावे को पुख्ता करते हैं। दूसरी ओर
देखें तो, नेपाल से लेकर मॉरीशस और सूरीनाम में यह कुछ हद तक रोजगार की भाषा बनी
है।
एक हजार साल पुरानी भोजपुरी भाषा न केवल एक
भाषा है बल्कि बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के
भोजपुरी क्षेत्र का संस्कार और जीवन है। भोजपुरी में वह क्षमता है जो अन्य भाषाओं
में कम देखने को मिलता है। यह हर परिस्थिति में अपनी स्थिति मजबूत कर लेती है और
उस मुकाम पर पहुँच जाती है जहाँ इसे होना चाहिए था। अपनी ऐतिहासिकता के लिए
विख्यात भोजपुरी एक तरफ बलिया से बेतिया तक फैली है, तो इसका
उत्तरी-दक्षिणी फैलाव लौरिया नंदनगढ़ से आजमगढ़, देवरिया तक है। दूसरी ओर जहां इसकी
कीर्ति पताका राम प्रसाद बिस्मिल, मंगल पांडेय, असफाकउल्लाह
खां जैसे क्रांतिवीरों ने लहराया है तो, वहीं बाबू कुंवर सिंह ने इसी जमीं में जीत
का जज्बा भरा है। आजादी के बाद भोजपुरी क्षेत्र से बनने वाले प्रथम राष्ट्रपति की
बात हो या कर्मठ प्रधानमंत्री का, डॉ. राजेंद्र प्रसाद से लेकर लाल
बहादुर शास्त्री तक सर्वश्रेष्ठ विकल्प पुरबिया माटी से ही निकले हैं। सचिदानंद
सिन्हा ने अपना कौशल दिखलाया तो वहीं दूसरी ओर दुश्मनों के दांत खट्टे करने और
सरहदों की रक्षा ही नहीं वरन विस्तार करने में बाबू जगजीवन राम का कोई सानी नहीं।
हमारे सांसद अपने गौरवशाली इतिहास से
प्रेरणा ले सकते हैं, क्योंकि हमारा भोजपुरिया प्रदेश
विशेष रूप से सदा सत्ता का केंद्र रहा है और अपने सम्मान की रक्षा में हमेशा आगे
रहा है। मौर्यों से पहले जरासंध और शिशुनाग जैसे शासकों को देख चुका यह क्षेत्र
महान सिकंदर के आक्रमण को चंद्रगुप्त मौर्य के शौर्य से चुनौती देता है। कभी
शिक्षा का महानतम केंद्र, तेजस्विता से ओत-प्रोत यह क्षेत्र कितने मनीषियों,
शिक्षाविदों, राजनेताओं की महान कर्मस्थली बन विश्व का नेतृत्व किया, विश्व को
मानवता का पाठ पढ़ाया और आज एकाएक यह अनपढ़ और अपने कर्तव्य के प्रति उदासिन कैसे
हो गया? नेता, सांसद अपनी मातृभाषा के
प्रति सम्मान की बात तो करते हैं पर संसद में असहाय क्यों दिखते हैं, यह
संदेहास्पद बात है, इनकी कोई मजबूरी है या ये जानबूझ कर अपनी मातृभाषा को उपेक्षित
रखना चाह रहे हैं।
एक से बढ़कर एक पावरफुल भोजपुरिया सांसद, मंत्री, लोकसभा
अध्यक्षा,
प्रधानमंत्री एवं देश के सर्वोच्च पद महामहिम राष्ट्रपति
हुए। पर,
आजादी के 68 साल बाद भी भोजपुरी भाषा अपने सम्मान की लड़ाई
लड़ रही है। वह भी भारत में सबसे ज्यादा भोजपुरी बोलने वाले सपूतों को पैदा करने के
बाद भी,
भोजपुरी माटी के लाल देश मे ही नहीं विदेशों में भी अपनी
हुनर,
मेहनत और ताकत के बलबूते सर्वोच्च पदों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
आज मॉरीशस, फिजी, गुयाना, सुरीनाम,
नीदरलैंड,
त्रिनिदाद, टोबैगो जैसे देशों में भोजपुरी
जनसमूह अपना परचम बड़े गर्व से फहरा रहा है। मॉरीशस के खेतों में गन्ने की खेती के
लिए धोखा से ले जाए गए मजदूरों ने बसुधैव कुटुंबकम की भावना से ओत प्रोत हो कर उस
मिट्टी को ही अपने खून-पसीने से सिंचना शुरू किया। बंजर जमीनें लहलहा उठीं और आज
मॉरीशस विश्व का जीता-जागता स्वर्ग बन गया। यह भोजपुरी माटी की ताकत ही है कि देश
के बाहर एक और भारत का निमार्ण हो गया। आखिर हमारे नेता अपने इतिहास से सीख क्यों
नहीं लेते और वर्षो से लंबित भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की जोरदार
पहल क्यों नहीं करते? आखिर कब तक ये सांसद, नेता, मंत्री
केवल बातें बनाते रहेंगे और कोरा आश्वासन देते रहेंगे। यूपीए 1
एवं 2 के मंत्री और नेता भी केवल आश्वासन देने के सिवा कुछ नहीं किए। खांटी
भोजपुरिया एवं सासाराम की सांसद, मीरा कुमारलोकसभा अध्यक्षा रहीं और कुशीनगर के
सांसद आरपीएन सिंह गृहराज्य मंत्री रहे, फिर भी बिल
तक पेश नहीं करा पाए लोकसभा में।
भोजपुरी माटी में पैदा होकर अनेक भोजपुरिया
सपूत अपने-अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण एवं पावरफुल बने। उन्हीं में से कवि केदार
नाथ सिंह जी,
आलोचक नामवर सिंह, मनेजर
पाण्डेय जी और साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ त्रिपाठी जी। इन चारों का मेरा
नमन। इन लोगों ने अपने साहित्य, कविताओं और आलोचनाओं से देश-विदेश
में भोजपुरी माटी का मान बढ़ाया है। पर, इन लोगों
ने कभी भी अपनी मां की भाषा भोजपुरी की बात करना तो दूर कर्ज चुकाने की भी कोशिश
नहीं की।
हम ए महान विभूति लोगन से पुछत बानी की, ‘भोजपुरी के
संवैधानिक दरजा मिले, एकरा खातिर कवनो फरज नइखे? विकिपीडिया पर भोजपुरी माटी के
महान सपूत नामवर सिंह के हम प्रोफाइल पढ़त रहनी, पढ़ि के
हमरा सरमिंदा महसूस भइल कि का कवनो भोजपुरिया खातिर एतना खराब समय आ गइल बा की
ओकरा आपन पहिचान बतावत में सरम आवत बा? रउआँ सभे
भी पढ़ लीं की का लिखल बा, ‘वे हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू, बाँग्ला, संस्कृत
भाषा भी जानते हैं।’ नामवर सिंह के जनम 1 मई 1927 के
बनारस (अब के चंदौली जिला में) के एगो गाँव जीयनपुर में भइल रहे। तऽ का माननीय
नामवरजी के आपन माई भाखा भोजपुरी ना आवेला? का पैदा
होते उहाँ का उर्दू भा बंगला बोले लगनीं? यह बहुत ही
शर्म की बात है कि ऐसा व्यक्ति जिस पर हम भोजपुरियों को नाज है वह अपनी माटी की
खूशबू और भाषा से ही परहेज कर गया, जिसमें वह
पला-बढ़ा, जिसको बोलकर वह आज इस मुकाम पर पहुँचा।
मनेजर
पाण्डेय जी एवं कविवर केदारनाथ सिंह जी भोजपुरी में कुछ ना लिख सकेनीतऽ भोजपुरी
मान्यता के मांग भी ना कर सकेनी का? ओने
साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ त्रिपाठी 24 भासा के लोगन के सम्मान देत समय
एक्को बेर उनका आपन माई के भासा भोजपुरी के यादो ना आइल? इ सभ देख
के दिल के बड़ा ठेस पहुँचे ला, पर का इ चारों विभूतियन के कुछु
फर्क भी ना पड़े? अब ए से बड़हन सरम के बात का होई।
2013 में पटना में मोदी सरकार के पावरफुल मंत्री रविशंकर प्रसाद भी कहले रहनी की
मोदी सरकार आवते भोजपुरी के संवैधानिक मान्यता मिल जाई। पर मान्यता तऽ दूर के बात
बा,
अभी हाले में रविशंकर बाबु 22 भासा में किताबन के ‘डिजिटलाइजेशन’ के घोसना
कइलन,
पर भोजपुरी के तनको इयाद ना कइनें!
हमरा उम्मीद ही ना पूरा विश्वास बा कि अगर इ
नामवर सिंह,
केदारनाथ सिंह, मनेजर
पाण्डेय जी, विश्वनाथ त्रिपाठी और सभ भोजपुरिया
सांसद एक बार,
एक साथ जोरदार ढंग से भोजपुरी के अष्ठम अनुसूची में सामिल
कइले के मांग उठाई लोग तऽ कवनो सरकार के रोकल मुश्किल हो जाई आ मान्यता संबंधी बिल
संसद में पास करहीं के पड़ी। जय भोजपुरी!